29 फरवरी, 1969 का दिन। ढाका में पाकिस्तान और इंग्लैंड के बीच टेस्ट मैच चल रहा था। पहले बैटिंग कर रहे पाकिस्तान का आठवां विकेट गिरता है और नियाज अहमद बल्लेबाजी करने आते हैं। वह जब उतरे तो दर्शकों ने उनका ऐसा स्वागत किया मानों कोई टॉप ऑर्डर बल्लेबाज आया हो। नियाज अहमद बहुत शानदार प्लेयर नहीं थे, न ही वह बंगाली थे। उनका जन्म तो उत्तर प्रदेश में हुआ, आजादी के बाद उनका परिवार पाकिस्तान चले गया था। उन्हें ढाका में इतना सपोर्ट इसलिए मिल रहा था क्योंकि 1971 तक किसी भी बांग्लादेशी को पाकिस्तान से खेलने का मौका नहीं मिला। इसलिए बंगाली क्रिकेटर को प्लेइंग-11 में देखकर बांग्लादेशी फैंस का सपोर्ट बढ़ गया था। 1971 में बांग्लादेश आजाद हुआ, 1986 में टीम ने वनडे क्रिकेट खेलना शुरू किया और देश में बंगाली मुसलमानों के साथ भेदभाव बंद हुआ। लेकिन फिर वहां के हिंदुओं के साथ यह भेदभाव शुरू हो गया। स्टोरी में हम 3 बातें जानेंगे…
1. बांग्लादेशी क्रिकेटर्स को 1971 से पहले तक पाकिस्तान में कैसे ट्रीट किया जाता था।
2. आजादी के बाद बांग्लादेश में हिंदू क्रिकेटर्स की क्या हैसियत रही।
3. इंटरनेशनल क्रिकेट में नस्ल या धर्म के आधार पर भेदभाव की अन्य मशहूर कहानियां क्या रही हैं। बंगालियों को कमजोर मानते थे पाकिस्तानी भारत ने आजादी से पहले ही इंटरनेशनल क्रिकेट खेलना शुरू कर दिया था। भारत ने अपना पहला टेस्ट मैच 1932 में खेला। 1947 में देश आजाद हुआ। भारत का टेस्ट स्टेटस बरकरार रहा, लेकिन नए देश पाकिस्तान ने 1952 से इंटरनेशनल क्रिकेट खेलना शुरू किया। तब से 1971 तक पाकिस्तान की टीम में पश्चिमी पाकिस्तान (अब पाकिस्तान) के खिलाड़ियों का ही बोलबाला रहा। पाकिस्तान में आम धारणा थी कि बंगाली शारीरिक रूप से कमजोर होते हैं और क्रिकेट में बहुत अच्छा नहीं कर पाते। इसलिए उन्हें टीम में भी मौका नहीं मिलता था। टोकन के तौर पर शामिल करते थे खिलाड़ी 1971 से पहले जब पाकिस्तान का मैच पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) के किसी शहर में होता था, तब उस हिस्से के किसी क्रिकेटर को टोकन के तौर पर टीम में शामिल करते था। ऐसा इसलिए होता था ताकि स्टेडियम आने वाले दर्शक नाराज न हों। टोकन के तौर पर भी वही खिलाड़ी टीम में आते थे, जो बंगाली न हो। नियाज अहमद, मोहम्मद उल हसन, नासिम उल घनी ऐसे ही क्रिकेटर रहे, जो बंगाली नहीं थे। लेकिन डोमेस्टिक क्रिकेट में ईस्ट बंगाल से खेलने के कारण पाकिस्तान टीम में जगह बना सके। 1970 में पहली बार चुना गया बंगाली, लेकिन वह 12वां खिलाड़ी ही बन पाया पाकिस्तान ने 1969-70 के न्यूजीलैंड दौरे के लिए पहली बार किसी बंगाली क्रिकेटर को टीम में सिलेक्ट किया। नाम था रकीबुल हसन। रकीबुल ओपनिंग बल्लेबाज थे और तब 16 साल के ही थे। हालांकि, उन्हें किसी भी मैच की प्लेइंग-11 में शामिल नहीं किया गया और वे 12th मैन यानी 12वां खिलाड़ी ही बन पाए। रकीबुल फरवरी 1971 में कॉमनवेल्थ टीम के खिलाफ अनऑफिशियल टेस्ट मैच में पाकिस्तान के लिए खेले। इसके बाद बांग्लादेश आजाद हो गया और रकीबुल आगे चलकर बांग्लादेश के लिए खेले। 1986 से बांग्लादेश इंटरनेशनल खेल रहा, 2000 में पहली बार हिंदू को मौका बांग्लादेश को आजादी के बाद इंटरनेशनल क्रिकेट में वापसी करने के लिए लंबा समय लगा। टीम ने 1986 से वनडे क्रिकेट खेलना शुरू किया। आजादी से बाद बंगाल के हिंदू क्रिकेटर्स के साथ भेदभाव शुरू हो गया। यहां तक कि बांग्लादेश के लिए पहली बार किसी हिंदू क्रिकेटर को साल 2000 में मौका मिल सका। 2000 में ही बांग्लादेश को टेस्ट स्टेटस मिला था और भारत के खिलाफ पहले टेस्ट में रंजन दास नाम के क्रिकेटर को खिलाया गया। रंजन इसके बाद कभी बांग्लादेश के लिए नहीं खेल पाए। उन्होंने बाद में अपना धर्म बदला और मुसलमान हो गए। उन्हें इसके बाद भी मौका नहीं मिला। पिछले 10 साल में खेले 6 हिंदू क्रिकेटर बांग्लादेश से अब तक 174 प्लेयर्स ने इंटरनेशनल क्रिकेटर खेला, इनमें 11 यानी 7% से भी कम हिंदू ही प्लेइंग-11 का हिस्सा बना सके। जबकि बांग्लादेश में हिंदुओं की आबादी 9% है। 11 में से भी 6 को पिछले 10 साल में मौका मिला सका, क्योंकि 2014 से बांग्लादेश में शेख हसीन की सरकार रही। उससे पहले तक 28 साल में टीम से 5 ही हिंदू इंटरनेशनल खेल सके थे। अब दुनिया में इंटरनेशनल क्रिकेट के 2 बड़े उदाहरण, जहां भेदभाव हावी रहा… 1. पाकिस्तान: गैर मुस्लिमों से भेदभाव धर्म बदलकर खेल पाते थे खिलाड़ी 1947 में जब पाकिस्तान भारत से अलग हुआ तब वहां गैर मुस्लिमों की आबादी 23% थी। लेकिन इस्लामिक एक्स्ट्रीमिज्म बढ़ने के साथ-साथ वहां गैर मुस्लिमों की आबादी लगातार घटने लगी। इसका असर वहां के क्रिकेट इकोसिस्टम पर भी दिखता है। पाकिस्तान से अब तक 350 प्लेयर्स ने इंटरनेशनल क्रिकेट खेला, जिनमें गैर मुस्लिम महज 7 रहे। पाकिस्तान से अब तक सिर्फ 2 हिंदू (अनिल दलपत और दानिश कनेरिया) और 5 ईसाई (वालिस मथियास, डंकन शार्प, अनाटो डिसूजा, सोहेल फजल और यूसुफ योहाना) ही इंटरनेशनल खेल पाए। इनमें भी यूसुफ योहाना ने बाद में धर्म बदल लिया और मोहम्मद यूसुफ बन गए। 2. साउथ अफ्रीका: अश्वेतों को नहीं मिलता था मौका
21 साल बैन के बाद मिलने लगा रिजर्वेशन साउथ अफ्रीका ने 1889 में इंटरनेशनल क्रिकेट खेलना शुरू किया। 1970 तक टीम में एक भी अश्वेत खिलाड़ी को मौका नहीं मिला। साउथ अफ्रीका में रंगभेद नीति लागू थी और अश्वेतों को क्रिकेट ही नहीं बाकी खेलों और महकमों में भी भेदभाव का शिकार होना पड़ता था। साउथ अफ्रीका उन टीमों से भी नहीं खेलता था, जहां एक भी अश्वेत खिलाड़ी हों। इसलिए 1970 तक टीम ने भारत, पाकिस्तान और वेस्टइंडीज से कोई मैच नहीं खेला। 1970 में इंग्लैंड ने साउथ अफ्रीका दौरे के लिए अपनी टीम में एक अश्वेत खिलाड़ी (बेसिल डी ओलिवरा) को सिलेक्ट किया। साउथ अफ्रीका ने तब इंग्लैंड से भी खेलने से इनकार कर दिया। इस वजह से देश पर इंटरनेशनल क्रिकेट काउंसिल (ICC) ने 21 साल का बैन लगा दिया। 1991 में साउथ अफ्रीका ने इंटरनेशनल क्रिकेट में वापसी की। तब से वहां रंगभेद नीति खत्म हो चुकी है और अश्वेत खिलाड़ियों के लिए तो क्रिकेट में रिजर्वेशन तक लागू कर दिया गया है। ग्राफिक्स: अंकित पाठक