फिल्म रिव्यू- भागवत चैप्टर 1: राक्षस:सस्पेंस के पीछे की सच्चाई समाज नहीं, इंसान को बेनकाब करती है

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फिल्म “भागवत” की शुरुआत देखकर लगता है कि कहानी “लव जिहाद” और “धर्म परिवर्तन” जैसे विवादित मुद्दों पर आधारित होगी।लेकिन जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है, यह स्पष्ट होता है कि यह फिल्म धर्म या राजनीति नहीं, बल्कि इंसानी जुनून और मानसिक विकृति की परतें खोलती है। निर्देशक अक्षय शेरे ने इस विषय को सामाजिक माहौल के साथ जोड़ने की कोशिश की है — कुछ वैसी ही, जैसी ओटीटी पर आई “दहाड़” ने की थी। हालाँकि “भागवत” उतनी धार और सिनेमाई गहराई हासिल नहीं कर पाती। फिल्म की कहानी कैसी है? ACP विश्वास भागवत (अरशद वारसी) सस्पेंस से भरे एक केस की जांच के दौरान अचानक रॉबर्ट्सगंज ट्रांसफर हो जाते हैं।वहीं, पूनम मिश्रा नाम की लड़की रहस्यमय ढंग से लापता हो जाती है, जिसके बाद राजनीतिक बयानबाजी, धर्म परिवर्तन की बहस और भीड़ की हिंसा शुरू होती है। विश्वास जब गहराई में जांच करते हैं तो उन्हें पता चलता है कि कौशल्या, संतोष, संध्या जैसी कई लड़कियां पिछले कुछ महीनों में इसी तरह गायब हुई हैं।हर केस की कहानी लगभग एक जैसी — रोजमर्रा की जिंदगी से निकलना और फिर रहस्यमय तरीके से गायब हो जाना। इसी बीच बनारस में समीर और मीरा की प्रेम कहानी चल रही होती है, जो शुरुआत में मासूम लगती है लेकिन धीरे-धीरे डरावना रूप ले लेती है। फिल्म का क्लाइमैक्स यह साफ कर देता है कि यह मामला धर्म या राजनीति का नहीं, बल्कि इंसान के भीतर छिपे अंधेरे का है। स्टारकास्ट की एक्टिंग कैसी रही? अरशद ने विश्वास भागवत के किरदार में गंभीरता और यथार्थ का संतुलन दिखाया है। एक थके हुए लेकिन ईमानदार पुलिस अधिकारी की संवेदनशीलता उन्होंने सटीकता से पकड़ी है। जीतेन्द्र कुमार अपने psychotic अवतार में दर्शकों को चौंकाते हैं — उनकी आंखों की बेचैनी और शांत चेहरा कहानी को असरदार बनाता है। सपोर्टिंग कास्ट (राघव, अर्जुन आदि) अपने हिस्से का काम ईमानदारी से करती है, हालांकि कुछ दृश्यों में उनकी गहराई कम लगती है। फिल्म का निर्देशन और तकनीकी पक्ष अक्षय शेरे ने फिल्म की पृष्ठभूमि और टोन को वास्तविक बनाए रखने की कोशिश की है।रॉबर्ट्सगंज और बनारस के लोकेशंस कहानी को जमीन से जोड़ते हैं। हालाँकि कहानी का प्रवाह बीच में धीमा पड़ता है, जिससे सस्पेंस का प्रभाव कम हो जाता है। हेमल कोठारी की एडिटिंग थोड़ी टाइट होती तो फिल्म और प्रभावशाली बन सकती थी। सुमित सक्सेना के संवाद यथार्थवादी हैं, लेकिन कुछ जगहों पर एक्सपोज़िशन अधिक लगता है। सिनेमैटोग्राफी और संगीत मंगेश धाकड़े का बैकग्राउंड स्कोर फिल्म की ताकत है। जांच, डर और रहस्य से भरे सीन में म्यूज़िक माहौल बनाता है। “कच्चा काचा आम” और “गवाही दे” जैसे गाने कहानी में भावनात्मक गहराई लाने की कोशिश करते हैं। दृश्य रूप से फिल्म में पूर्वांचल की गलियों, मंदिरों और शहर की बेचैनी को सही ढंग से दिखाया गया है। कमियां और तुलना “दहाड़” से “भागवत” और “दहाड़” दोनों ही गायब होती लड़कियों और समाज में फैलती बेचैनी पर केंद्रित हैं। लेकिन जहां “दहाड़” ने धीरे-धीरे दर्शकों को भीतर तक झकझोरा, वहीं “भागवत” का असर सीमित रह जाता है। कहानी का ग्राफ उतार-चढ़ाव भरा है, और कई जगह अनुमानित भी लगने लगता है। ट्विस्ट मौजूद हैं, पर उनकी प्रस्तुति उतनी सशक्त नहीं हो पाई जितनी अपेक्षित थी। फिल्म का फाइनल वर्डिक्ट, देखें या नहीं? “भागवत” एक ईमानदार कोशिश है जो समाज के मुद्दों के साथ इंसानी मानसिकता को समझने की कोशिश करती है।विषय नया नहीं, लेकिन ट्रीटमेंट अलग है। फिल्म सोचने पर मजबूर करती है, पर उतना बांध नहीं पाती। अगर आपको सस्पेंस-ड्रामा पसंद है, तो इसे एक बार देखा जा सकता है — बस उम्मीदें ज़्यादा न रखें।

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