अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हंसी की बारीक परतों में गंभीर बातें कहने वाले पद्मश्री हास्य कवि डॉ. सुरेन्द्र दुबे अब हमारे बीच नहीं हैं। गुरुवार को दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया। आज उनका अंतिम संस्कार होगा, जिसमें कुमार विश्वास भी शामिल होंगे। उनकी अंतिम यात्रा उनके निवास स्थान अशोका प्लेटिनम बंगला नंबर 25 से रायपुर के मारवाड़ी श्मशान घाट तक जाएगी। शब्दों के इस जादूगर के लिए एक ‘अभिनंदन ग्रंथ’ तैयार किया जा रहा था। जिसमें उनके जीवन, लेखनी, संघर्ष और स्मृतियों को सहेजने की कोशिश की जा रही थी। प्रकाशक सुधीर शर्मा ने बताया कि पिछले चार महीनों से इस ग्रंथ पर काम चल रहा था, जिसमें उनके पिता गर्जन सिंह दुबे, पुत्र डॉ. अभिषेक दुबे और खुद सुरेन्द्र दुबे की दुर्लभ रचनाएं, तस्वीरें और पत्र शामिल थे। लेकिन किताब पूरी होने से पहले ही शब्दों का ये जादूगर इस दुनिया को अलविदा कह गया। अगले महीने किताब का विमोचन होना था। सुरेंद्र दुबे का बेमेतरा से अमेरिका पहुंचना और एक डॉक्टर का कवि बनने तक का सफर पढ़िए इस रिपोर्ट में:- बहुत कर लिया… अब ज़्यादा कुछ नहीं करना” – मीर अली मीर की यादों में सुरेन्द्र दुबे कवि मीर अली मीर ने दैनिक भास्कर से बातचीत में उस आखिरी मुलाकात को याद किया, जो चार दिन पहले रायपुर के एक काव्यकुंभ कार्यक्रम में हुई थी। उन्होंने बताया – “हम दोनों बैठे थे, अचानक सुरेन्द्र भाई ने मुझसे पूछा – ‘आपकी उम्र क्या है?’ मैंने जब बताया, तो मुस्कुराते हुए बोले – ‘अरे, आप तो मुझसे पांच महीने बड़े हैं… यानी आप ज़्यादा सम्मानीय हुए। अब उम्र के हिसाब से बात करनी होगी।’” इसके बाद दोनों ने बिना शक्कर की चाय पी। बातचीत हल्की-फुल्की थी, लेकिन मीर बताते हैं कि उस दिन सुरेन्द्र दुबे कुछ अलग ही मन:स्थिति में थे। “वे कहने लगे – ‘मैं अब ज्यादा कार्यक्रम नहीं लेता… इसलिए अब रेट ज़्यादा बताता हूं, ताकि आयोजक सोच लें। बहुत कर लिया ज़िंदगी में… अब ज्या कुछ नहीं करना।’ ये बात उन्होंने बड़े ठहराव के साथ कही। और मुझे यह बदलाव उनके भीतर नया लगा।” बोरा मंगवाइए… नारियल और गमछे भरकर ले जाएंगे कवि मीर अली मीर बताते हैं कि एक बार सुरेन्द्र दुबे के साथ कविता पाठ के लिए खौली और भानसोज गांव जाना हुआ। “उनके स्वागत में गांव के लोग उमड़ पड़े थे। मंच पर जब वो पहुंचे तो एक-एक कर लोग उन्हें छत्तीसगढ़िया गमछा पहनाने लगे। साथ में नारियल भी देने लगे। धीरे-धीरे मंच पर 150 से ज्यादा गमछे और नारियल इकठ्ठा हो गए थे। मीर बताते हैं कि सुरेन्द्र जी ने उस माहौल में भी अपनी ह्यूमर नहीं छोड़ी – “वो बोले- ‘कोई एक बोरा मंगवाइए, सारे गमछे-नारियल उसी में भरकर ले जाएंगे।’ लोग ठहाका मारकर हँसे… लेकिन कार्यक्रम के बाद उन्होंने वो सारे गमछे और नारियल गांव के ही लोगों में बांट दिए। ये उनका बड़प्पन था-सम्मान को अपने लिए नहीं, समाज के लिए स्वीकार करना। “पहले ब्रश करूंगा… फिर खाऊंगा” एक और किस्सा मीर अली मीर ने साझा किया, जो सुरेन्द्र दुबे की अनुशासन और आत्मसंयम को दर्शाता है। “एक बार हम भाटापारा किसी कार्यक्रम से लौट रहे थे। सुबह के चार बज चुके थे। सब थके हुए थे, भूख लगी थी। उनका टिफिन पीछे सीट पर रखा था। हम सबने कहा कि चलिए खाना खा लेते हैं।” लेकिन सुरेन्द्र जी ने तुरंत मना कर दिया। वे बोले -‘पहले ब्रश करूंगा, फिर खाऊंगा।’ और सच में… उन्होंने पास की दुकान से ब्रश खरीदा, ब्रश किया और फिर खाना खाया। वो मंच पर जितने सहज थे, अपने जीवन में उतने ही सलीकेदार और नियमित थे। दूल्हे की तरह स्वागत… आतिशबाजी और पटाखे देवेन्द्र परिहार ने एक घटना का जिक्र किया जब वे मुंगेली जिले के नगरा गांव में एक कवि सम्मेलन में सुरेन्द्र दुबे के साथ पहुंचे थे। “उनकी लोकप्रियता का आलम ये था कि आसपास के गांवों से हजारों लोग उन्हें सुनने पहुंचे। जब गाड़ी से उतरे, तो जैसे किसी दूल्हे की अगवानी हो रही हो-आतिशबाजियां, पटाखे, माला और जयकार… सब कुछ उसी अंदाज में हुआ।” परिहार कहते हैं कि ये सब देखकर खुद दुबे जी मुस्कुरा पड़े और बोले- “अब लगता है कविताओं का भी बारात जैसा स्वागत होगा। एक कलाकार, कई रंग – सुरेन्द्र दुबे की छाया जहां-जहां पड़ी डॉ. सुरेन्द्र दुबे सिर्फ मंचीय हास्य कवि नहीं थे। उनके भीतर कला के कई चेहरे जिंदा थे। नाटक, दूरदर्शन लेखन, सिनेमा और अभिनय तक उनका रुझान था। रामलीला में सीता का किरदार निभाया बेमेतरा में अपने किशोरावस्था के दिनों में सुरेन्द्र दुबे ने कई बार रामलीला में सीता का किरदार निभाया। दर्शकों की तालियों और लोगों की भावनात्मक प्रतिक्रियाओं से उन्हें पहली बार मंच की ताकत का अहसास हुआ। कॉलेज के दिनों में फिल्मों का सपना सुरेन्द्र दुबे के भतीजे संदीप अखिल बताते हैं कि कॉलेज के दौरान बेमेतरा में अपने कुछ दोस्तों के साथ उन्होंने फिल्म बनाने का सपना भी देखा था। स्क्रिप्ट पर बात होती, किरदारों की चर्चा होती लेकिन जिंदगी ने साहित्य को उनकी पहली प्राथमिकता बना दिया। दूरदर्शन के लिए लिखे कई नाटक उनकी रचनात्मकता सिर्फ कविताओं तक सीमित नहीं थी। उन्होंने दूरदर्शन के लिए कई नाटक लिखे, जिनमें ‘सूरदास को सब दिखता है’ जैसे प्रयोगात्मक नाटक भी शामिल हैं। जिसमें हास्य और व्यंग्य एक साथ दिखाई दिए लाल किले से 8 बार कवि सम्मेलन उनका मंचीय रुतबा ऐसा था कि लाल किले की ऐतिहासिक प्राचीर से उन्होंने आठ बार कवि सम्मेलन में कविता पाठ किया। यह किसी भी मंचीय कवि के लिए गर्व का विषय है और छत्तीसगढ़ के लिए तो और भी बड़ी बात। बेमेतरा से अमेरिका तक – एक डॉक्टर, जो कवि बन गया 8 अगस्त 1953 को छत्तीसगढ़ के बेमेतरा (तब दुर्ग जिले का हिस्सा) में जन्मे डॉ. सुरेन्द्र दुबे पेशे से आयुर्वेदिक डॉक्टर थे। लेकिन उनकी असली पहचान एक ऐसे कवि की थी, जिसकी कलम हंसी की चाशनी में लिपटी व्यंग्य की धार लिए चलती थी। जीवन के गंभीर पहलुओं को भी वे हल्के-फुल्के अंदाज़ में कह जाते, और श्रोताओं को हंसाते-हंसाते सोचने पर मजबूर कर देते थे। उनकी रचनात्मक शैली ‘काका हाथरसी’ की परंपरा से जुड़ी थी, मगर उसमें छत्तीसगढ़ की मिट्टी की सोंधी महक और व्यक्तिगत अनुभवों की गर्माहट साफ झलकती थी। छत्तीसगढ़ी और हिंदी के मंचों पर उन्होंने हास्य कविता को नई पहचान दिलाई। उन्होंने पांच किताबें लिखीं, कई नाटक और टेलीविजन स्क्रिप्ट्स भी रचे। 1980 में वे पहली बार अमेरिका गए। इसके बाद 11 देशों और अमेरिका के 52 शहरों में उन्होंने कविता पाठ किया। उनकी कविताएं – ‘दु के पहाड़ा ल चार बार पढ़’, ‘टाइगर अभी जिंदा है’, ‘मोदी के आने से फर्क पड़ा है’ – आम बोलचाल में भी दोहराई जाने लगीं। अयोध्या राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा के समय उन्होंने कविता लिखी – “पांच अगस्त का सूरज राघव को लाने वाला है, राम भक्त जयघोष करो मंदिर बनने वाला है…” जो खूब चर्चित हुई। 2010 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया। इससे पहले 2008 में उन्हें काका हाथरसी हास्य रत्न पुरस्कार मिला था। हालांकि 2018 में जब उन्होंने केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह की उपस्थिति में भाजपा का दामन थामा, तब से वे कांग्रेस शासित राज्य सरकार के सांस्कृतिक आयोजनों से धीरे-धीरे दूर होते चले गए। इस उपेक्षा की टीस कभी उन्होंने सीधे नहीं कही, लेकिन मंच पर उनकी व्यंग्य कविताएं उनकी पीड़ा बयान कर देती थीं। आज जब वे हमारे बीच नहीं हैं, तब उनकी सबसे बड़ी विरासत है- वो हंसी, जो उन्होंने जीवन भर बांटी… और वो शब्द, जो अब अमर हो गए हैं।