रायपुर में बूढ़ेश्वर मंदिर चौक पर इन दिनों एक अलग ही रौनक है। चौक के बीचोंबीच फैले विशाल बरगद के पेड़ के नीचे ढोल, धापड़ा, मोहरी और लिंसा की आवाजें गूंज रही हैं। पत्तों के बीच से छनती धूप, रंगीन कपड़ों में सजे कलाकार और मोलभाव करते यादव समाज के लोग… इस माहौल में ऐसा लगता है जैसे सदियों पुरानी कोई लोककथा फिर से जिंदा हो उठी हो। यह वही जगह है जहां हर साल कलाकारों का पारंपरिक बाजार लगता है। यहां दूर-दराज से गड़वा बाजा की टोलियां जमा होती हैं। कोई अपनी टोली का सौदा तय कर रहा है, तो कोई अपने वाद्ययंत्र को सहेजते हुए धुन पर थिरकने की तैयारी में है। ज्यादातर टोलियां पड़ोसी राज्य ओडिशा के गांवों से आती हैं, और छत्तीसगढ़ के गांवों में जाकर पखवाड़ेभर तक राउत नाचा का लोकनृत्य करती हैं। इस रिपोर्ट में जानिए बरगद तले सजे लोक कलाकारों के बाजार की रौनक और गड़वा बाजा की टोलियों की खासियत:- पहले ये तीन तस्वीरें देखिए 55 साल से बजा रहा हूं मोहरी…त्रिनाथ लोहार की धुन में बसी परंपरा ओडिशा के पदमपुर से आए 58 साल के त्रिनाथ लोहार बरगद के नीचे बैठे मोहरी को कपड़े से पोंछ रहे हैं। उनके चेहरे पर अनुभव की लकीरें हैं, लेकिन आंखों में अब भी वही चमक है जो किसी नए कलाकार में होती है। वे कहते हैं, “मैं बचपन से गड़वा बाजा टोली में हूं। “हमारे बिना त्योहार पूरे नहीं होते,” वे मुस्कुराते हुए कहते हैं और मोहरी से एक लंबी धुन छेड़ देते हैं। वह धुन पूरे चौक में फैल जाती है, जैसे लोकसंस्कृति की आत्मा हवा में घुल गई हो। ‘परी’ बनने वाले कलाकार, जो पुरुष होकर भी निभाते हैं स्त्री का भाव गड़वा बाजा की टोली में मनोज कुमार सबसे अलग नजर आते हैं। चेहरे पर बिंदी, आंखों में काजल, साड़ी का पल्लू कंधे पर और गहनों की झनकार। मनोज ‘परी’ का रोल निभाते हैं, यानी इस पारंपरिक नृत्य में महिला का रूप लेकर नृत्य करने उतरते हैं। मनोज कुमार, जो हर साल ‘परी’ बनते हैं यानी ऐसे पुरुष कलाकार जो महिला का वेश पहनकर नाचते हैं। वे लिपस्टिक लगाते हुए हंसते हैं, “10 साल हो गए इस भेष में। ओडिशा में नाटक-नौटंकी में करता था, लेकिन छत्तीसगढ़ में सम्मान मिलता है। लोग मजाक नहीं उड़ाते, बल्कि तारीफ करते हैं, फोटो खींचते हैं…। जब मोहरी बजती है तो मैं खुद को भूल जाता हूं। ”उनके बगल में बैठे पुरुषोत्तम भी वही करते हैं। परी बनकर नाचते हैं। बाकी दिनों में खेती-किसानी करते हैं, लेकिन दीपावली के वक्त यहां पहुंच जाते हैं। वे कहते हैं, “तीन साल से आ रहा हूं, अब तो हर साल ये हमारा त्योहार बन गया है। लड़की बनने में अब शर्म नहीं लगती, ये भी कला है।” इस बार भी पुरुषोत्तम यादव ‘परी’ बने हैं। चमकदार साड़ी, नकली गहनों और रंग-बिरंगे फूलों से सजे बालों के साथ जब वो गांव में निकलते हैं, तो देखने वाले कुछ पल के लिए भूल जाते हैं कि ये पुरुष हैं।पुरुषोत्तम कहते हैं, “परी बनना आसान नहीं होता भाई, घंटेभर से ज्यादा का वक्त लगता है तैयार होने में। लेकिन ये हमारा गर्व है। गांव में जब हम नाचते हैं तो लोग हमारी तरफ ही देखते हैं। “लोग हंसते हैं, पर हमें फर्क नहीं पड़ता” 15 साल से परी बनने वाले सहदेव दूसरी टोली के कलाकार सहदेव तब मेकअप कर रहे थे, चेहरे पर सिंदूर, माथे पर बिंदी और साड़ी की पल्लू को संवारते हुए बोले “लोग कहते हैं कि मर्द होकर लड़की क्यों बनते हो, लेकिन हमें फर्क नहीं पड़ता। उनकी बातें खत्म होते ही पीछे से गड़वा बाजा की धुन उठती है। धापड़ा की थाप और मोहरी की तीखी आवाज़ जैसे किसी को भी थिरकने पर मजबूर कर देती है। कुछ ही पलों में सहदेव और उनकी टोली ताल पर झूमने लगती है। बरगद के नीचे का वो दृश्य अविश्वसनीय था चमकीले कपड़ों में सजे पुरुष कलाकार, जिनकी चाल और मुद्राओं में स्त्रीत्व का भाव था। दर्शक तालियां बजाते हैं, बच्चे हूटिंग करते हैं, और हवा में उत्सव की गंध घुल जाती है। कल्चुरी राजाओं की 600 साल पुरानी विरासत आज भी जीवित छत्तीसगढ़ी लोक संस्कृति के जानकार डॉ. रमेंद्र नाथ मिश्र बताते हैं,“गड़वा बाजा की टोलियां कल्चुरी राजाओं के वक्त से रायपुर में जमा होती आ रही हैं। यह परंपरा करीब 600 साल पुरानी है। गौरा-गौरी और गोवर्धन पूजा के बाद शुरू होता है ‘राउत नाचा’ यह बाजार दिवाली के बाद शुरू होता है। गौरा-गौरी पूजा और गोवर्धन पूजा करने वाले यादव समाज के लोग यहां आते हैं और गड़वा बाजा की टोलियों को अपने गांवों के लिए बुक करते हैं। इन कलाकारों के बिना राउत नाचा की रस्में अधूरी मानी जाती हैं। अगले पखवाड़ेभर तक गांवों में यही कलाकार दोहे गाते, लाठी थामे नाचते और गली-गली घूमते नजर आते हैं। किसी घर में दूध देने वाले यादव उसी घर में नाचते हुए पहुंचते हैं। सिर पर पगड़ी, कमर में पटका, हाथ में लाठी और पैरों में घुंघरू। कुछ पुरुष परी बनकर, कुछ असली राउत बनकर नाचते हैं। यह नाच सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि कृषक जीवन की खुशी और कृतज्ञता का प्रतीक है। टोली लेकर जा रहे अनुज यादव बरगद के पेड़ के नीचे खड़े होकर कलाकारों से मोलभाव कर रहे थे। उनके हाथ में नगदी की गड्डी और चेहरे पर उत्साह साफ झलक रहा था। वे मुस्कुराते हुए बोले खिलोरा गांव के रहने वाले पुनीत राम यादव 25 साल से यहां से टोली लेकर जाते हैं। वे बताते हैं, “इससे पहले मेरे पिता जी टोली लेकर जाते थे। अब मैं वही परंपरा निभा रहा हूं। इस बार 3 दिनों के लिए टोली 21 हजार में तय हुई है। गांव में घूम-घूम कर दोहे गाते हुए नृत्य करेंगे।” वहीं मुंगेसर गांव से आए 70 साल के पंचम यादव थोड़े निराश दिखे। उन्होंने बताया, “ज्यादातर टोलियों का सौदा हो गया है, कुछ ही बची हैं। इसलिए अब कीमत ज्यादा बता रहे हैं। पहले 45-50 हजार में टोली मिल जाती थी, इस बार 80 हजार बोल रहे हैं। बजट से बाहर है, इसलिए गांव के आसपास ही लोकल गड़वा बाजा देखेंगे।” पंचम यादव ने आगे कहा, “हम देरी से पहुंचे क्योंकि इस बार गोवर्धन पूजा दिवाली के एक दिन बाद है। पहले आते तो टोली मिल जाती, अब सब निकल चुकी हैं।” बरगद के नीचे गूंजती लोक संस्कृति बूढ़ेश्वर मंदिर चौक पर अब शाम हो चुकी है। पीली रोशनी के नीचे गड़वा बाजा की धुन अब भी थमने का नाम नहीं ले रही। त्रिनाथ लोहार अपने मोहरी को कपड़े में लपेट रहे हैं, मनोज अब साड़ी उतारकर धोती पहन चुके हैं, लेकिन चेहरे पर मेकअप की झलक बाकी है। सड़क किनारे खड़े यादव समाज के लोग अपनी टोली का सौदा पक्का कर चुके हैं। कोई 40 हजार में, कोई 60 हजार में। अब ये सभी गांव की ओर निकल गए हैं वहीं जहां असली राउत नाचा जिंदा होता है। बरगद का वह पेड़ साल दर साल इस परंपरा का गवाह है। हर साल दिवाली के बाद यहां कलाकारों का मेला लगता है, मोलभाव होता है, तालियां बजती हैं और फिर ये कलाकार अपनी-अपनी राह चल पड़ते हैं। लेकिन उनके पीछे रह जाती है वही थिरकती धुन मोहरी की, जो रायपुर की गलियों में अब भी छत्तीसगढ़ की आत्मा को जिंदा रखे हुए है। ये तस्वीरें भी देखिए…
