छत्तीसगढ़ की 5 भाषाओं समेत देश की 117 भाषाएं लुप्त होने की कगार पर हैं। 500 भाषाओं के अस्तित्व पर खतरा है। केंद्र ने इन भाषाओं को बचाने की दिशा में प्रयास शुरू तो किए हैं, लेकिन यह अंग्रेजी की एक वेबसाइट तक ही सिमटा नजर आ रहा है। कुछ समितियां बनाई और विशेषज्ञ नियुक्त किए गए हैं। बिलासपुर की सेंट्रल यूनिवर्सिटी समेत कुछ केंद्रीय विश्वविद्यालयों में शोध केंद्र बनाए गए हैं। डिक्शनरी, ऑडियो-वीडियो, रेखाचित्र बनाए गए हैं, पर ये प्रयास नाकाफी हैं। बता दें कि 1961 की जनगणना में देश में कुल 1652 भाषाएं थीं। पीपुल्स लिंग्विस्टर सर्वे ऑफ इंडिया ने वर्ष 2010 में 780 भारतीय भाषाओं की गिनती की थी। जबकि संविधान की 8वीं अनुसूची में 22 भाषाएं शामिल हैं। यूजीसी ने 9 यूनिवर्सिटी का चयन 2014 में लुप्तप्राय भाषाओं को बचाने के लिए किया था। इनमें से 7 सेंटरों को बंद कर दिया गया है। केवल विश्वभारती यूनिवर्सिटी कोलकाता और त्रिपुरा यूनिवर्सिटी में सेल चल रहा है। जिन्हें सेंटर के रूप में चुना गया था, उनमें गुरु घासीदास सेंट्रल यूनिवर्सिटी के अलावा अमरकंटक यूनिवर्सिटी मध्यप्रदेश, सेंट्रल यूनिवर्सिटी झारखंड, विश्वभारती यूनिवर्सिटी कोलकाता, त्रिपुरा यूनिवर्सिटी, केरल सेंट्रल यूनिवर्सिटी, बीएचयू और कर्नाटक सेंट्रल यूनिवर्सिटी शामिल थी। प्रत्येक यूनिवर्सिटी को 3.80 करोड़ रुपए मिले हैं। इनमें से बिलासपुर की सेंट्रल यूनिवर्सिटी 7 सेंटरों को यूजीसी ने बंद कर दिया है। अब केवल विश्वभारती यूनिवर्सिटी कोलकाता और त्रिपुरा यूनिवर्सिटी में सेल चल रहा है।
सरकार ने 11 साल पहले ली थी सुध
केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने वर्ष 2013 में लुप्तप्राय भाषाओं के संरक्षण और संरक्षण के लिए योजना शुरू की। योजना का एकमात्र उद्देश्य देश की ऐसी भाषाओं का दस्तावेजीकरण और संग्रह करना है जो लुप्तप्राय हो गई हैं या निकट भविष्य में हो सकती हैं। इस योजना की निगरानी कर्नाटक के मैसूर का केंद्रीय भारतीय भाषा संस्थान करता है। संस्थान इस मिशन के लिए देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों और संस्थानों का सहयोग लेता है। देश के 9 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में ऐसी भाषाओं के संरक्षण के लिए केंद्र बनाने की योजना है। भाषा दुनिया को देखने का तरीका
^जब एक भाषा मर जाती है, तो उसके साथ दुनिया को समझने का एक तरीका, दुनिया को देखने का एक तरीका भी मर जाता है।
जॉर्ज स्टीनर, दि आइडिया ऑफ यूरोप के लेखक झारखंड की बिरहोर, महाराष्ट्र की निहाली समेत कई भाषाएं संकट में
देश की पुलिया, बागी, तनगम, परेंगा, बाराडी पर खतरा है। ओडिशा की मंदा, परजी और पेंगो, कर्नाटक की कोरगा और कुरुबा, आंध्र की गदाबा और नाइकी, तमिलनाडु की कीकोटा और टोडा, अरुणाचल की मरा और ना, असम की ताई नोरा और ताई रोंग, उत्तराखंड की बंगानी, झारखंड की बिरहोर, महाराष्ट्र की निहाली, मेघालय की रूगा और बंगाल की टोटो भी। छत्तीसगढ़ की कोरवा, विलोर, गाेंडी, धुरवा और तुरी खतरे में
गुरु घासीदास सेंट्रल यूनिवर्सिटी के लुप्तप्राय भाषा विभाग के अनुसार प्रदेश में तुरी, कोरवा, विलोर, गोंडी और धुरवा संकट में हैं। इन्हें बचाने के लिए सेंट्रल यूनिवर्सिटी बिलासपुर, अमरकंटक यूनिवर्सिटी प झारखंड यूनिवर्सिटी का क्लस्टर बनाया गया था। इन विवि ने इन भाषाओं पर रिसर्च किया। उनकी ओर से ऑडियो-वीडियाे भी बनाए गए। बोलने वाले घट जाएं तो लुप्तप्राय
जिस भाषा-बोली का उपयोग करने वाले लोगों की संख्या 10 हजार से कम हो, उसे लुप्तप्राय माना जाता है। ऐसी भाषा-बोलियों को सूची में शामिल करने के बाद बचाने के प्रयास हाेते हैं। 27 हजार से अधिक लोगों के उपयोग के लिए एनसीईआरटी ने इस साल पहल की थी। 500 भाषाओं पर खतरा
आने वाले वर्षों में लगभग 500 ऐसी भाषाओं के व्याकरण, शब्दकोश और जातीय-भाषाई दस्तावेजीकरण पूरा होने का अनुमान है। बता दें कि ऐसी स्थिति भारत ही नहीं पूरे विश्व में है। पूरे विश्व में हजारों की संख्या में भाषाओं के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है। एक्सपर्ट व्यू – प्राथमिक स्तर पर पढ़ाई करानी पड़ेगी -डॉ. नीलकंठ पाणिग्रही, केंद्र समन्वयक, लुप्तप्राय भाषा केंद्र, सेंट्रल यूनिवर्सिटी लुप्त प्राय भाषाओं को बचाने के लिए आंगनबाड़ी और प्राथमिक स्तर की पढ़ाई भी इन भाषाओं में करानी होगी। इसके अलावा इन भाषाओं की डिक्शनरी बनाई जानी चाहिए। सीयू में यह काम किया गया है। इसका उपयोग कर लोगों को प्रशिक्षण देना चाहिए। स्थानीय पंचायत कार्यालयों में उसी भाषा में काम होना चाहिए। तब ही भाषा बचाई जा सकती है। 52 भाषाओं में वर्णमालाएं बनाईं
एनसीईआरटी ने 52 भाषाओं में वर्णमालाएं तैयार की हैं। इनमें शुरुआती कक्षाओं में पढ़ने वाले बच्चों के लिए ध्वनियां, वर्णमाला, पठन और लेखन अभ्यास के लिए पाठ शामिल किए गए हैं।